प्रस्तुतः पाठः वाल्मीकीयरामायणस्य अयोध्याकाण्डस्य पंचनवति ( 95 ) तमात् सर्गात् संकलितः। वनवासप्रसंगेः रामः सीतया लक्ष्मेणेन च सह चित्रकूटं प्राप्नोति। तत्रस्थितां मन्दाकिनीनदीं वर्णयन् सीतां सम्बोधयति। इयं नदी प्राकृतिकैरुपादानैः संवलिता चित्तंं हरति। अस्याः वर्णनं कालिदासो रघुवंशकाव्येऽपि ( त्रयोदशसर्गे ) करोति। अनुष्टुप्छनदसि महर्षिः वाल्मीकिः मन्दाकिनीवर्णने प्रकृतेः यथार्थं चित्रणं करोति।

अर्थ – प्रस्तुत पाठ वाल्मीकी रामायण के अयोध्या काण्ड के पंचानवें सर्ग से संकलित किया गया है। वनवास प्रसंग में राम-सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकुट पहुँचते हैं। यहाँ स्थित मन्दाकनी नदी का वर्णन करते हुए सीता को कहते हैं। यह नदी प्राकृतिक संपदाओं से घिरी होने के कारण मन को आकर्षित करती है। इसका वर्णन कालीदास ने रघुवंश काव्य में भी ;तेरहवें सर्ग में द्ध किये है। अनुष्ठुप छन्द में महर्षि वाल्मीकी मन्दाकिनी वर्णन में प्रकृति का यथार्थ चित्रण करते हैं।

 

विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम्।

कुसुमैरुपसंपन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम्।।1।।

अर्थ – हे सीते! फुलों से परिपुर्ण हंस-सारस से सेवित और रंग-विरंगी तटों वाली सुंदर मन्दाकनी नदी को देखों।

 

नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः।

राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः।।2।।

अर्थ – हे सीते! अनेक प्रकार के फल-फुलों के वृक्षों से घिरा हुआ किनारा राजाओं के सरोवर के समान सभी जगह प्रतीत हो रहा है।

 

मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम्।

तीर्थानि रमणीयानि रतिं संजनयन्ति मे।।3।।

अर्थ – हे सीते! अभी हरिणों के समुह द्वारा पीए गए जल गंदे हो गये जो मन को मोहित करने वाले तीर्थों के प्रति मेरे मन को जगा रहे हैं। अर्थात् यहाँ की सुंदरता, पवित्रता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर मेरे मन में प्रेम रस का संचार करने लगे हैं।

 

जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः।

ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये।।4।।

अर्थ – हे प्रिय सीते! जटा और मृगचर्म धारण करने वाले और पेड़ की छाल को वस्त्ररूप में धारण करने वाले ऋषिगण तो इसी मंदाकनी नदी में स्नान करते हैं।

 

आदित्यमुपतिष्ठनते नियमादूर्ध्वबाहवः।

एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः।।5।।

अर्थ – हे विशाल नयन वाली सीते! ये श्रेष्ठ तथा प्रशंसनीय व्रत रखने वाले मुनीलोग अपनी बाँहों को ऊपर किये हुए सुर्य की उपासना में लगे हैं।

 

मारुतोद्धूतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः।

पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम्।।6।।

अर्थ – हे सीते! नदी के चारों ओर फुल एवं पत्तों से युक्त एवं हवा में चलायमान शिखर से पर्वत झुमते हुए जैसे लग रहे हैं।

 

क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित्पुलिनशालिनीम्।

क्वचित्सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनीं नदीम्।।7।।

अर्थ – हे सीते! मणि जैसे निर्मल जलवाली मन्दाकनी को देखो-जिसकी कहीं तटें सजी-धजी हैं तो कहीं ऋषि-मुनियों से भरी हुई हैं।

 

निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसंचयान्।

पोप्लूयमानानपरान्पश्य त्वं जलमध्यगान्।।8।।

अर्थ – हे सीते! वायु द्वारा उड़ाये गये फुल समुहों को देखो और दुसरी तरफ जल के बीच में तैरते हुए फुलों के ढ़ेरों को देखो।

 

तांश्चातिवल्गुवचसो रथांगह्वयना द्विजाः।

अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः।।9।।

अर्थ – हे कल्याणी! अत्यन्त मीठी वाणी वाला चकवा-चकई पक्षी को देखो जो मधुर आवाज से मन्दाकनी की शोभा को बढ़ा रहे हैं।

 

दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने।

अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात्।।10।।

अर्थ – हे शोभने! यहाँ चित्रकुट और मंदाकनी के दृश्यों का दर्शन जो हो रहा है। यह दृश्य तुम्हारे द्वारा किया गया अन्य दृश्यों के दर्शन से अधिक सुंदर माना जायेगा।

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