■ समाजस्य यानं पुरुषैः नारीभिश्च चलति। साहित्येऽपि उभयोः समानं महत्वम्। अधुना सर्वभाषासु साहित्यरचनायां स्त्रियोऽपि तत्पराः सन्ति यशश्च लभन्ते। संस्कृतसाहित्ये प्राचीनकालादेव साहित्यसमृद्धौ योगदानं न्यूनाधिकं प्राप्यते। पाठेऽस्मिन्नतिप्रसिद्धानां लेखिकानामेव चर्चा वर्तते येन साहित्यनिधिपूरणे तासां योगदानं ज्ञायेत।
अर्थ – समाज की गाड़ी पुरूषों और स्त्रीयों के द्वारा चलती है। साहित्य में भी दोनां का समान महत्व है। आजकल सभी भाषाओं की साहित्य रचना में स्त्रियाँ भी तत्पर हैं और यश भी पा रही है।
संस्कृत साहित्य में प्राचीन काल से ही साहित्य को समृद्ध करने में दोनों का योगदान कम-अधिक के रूप में प्राप्त होता रहा है। इस पाठ में अति प्रसिद्ध लेखिकाओं का ही चर्चा है जिससे साहित्यरूपी खजाना को भरने में उन स्त्रीयों का योगदान के बारे में जानकारी होती है।
■ विपुलं संस्कृतसाहित्यं विभिन्नैः कविभिः शास्त्रकारैश्च संवर्धितम्। वैदिकालादारभ्य शास्त्राणां काव्यानांञ्च रचने संरक्षणे यथा पुरुषाः दत्तचिताः अभवन् तथैव स्त्रिऽपि दत्तावधानाः प्राप्यन्ते। वैदिकयुगे मन्त्राणां दर्शका न केवला ऋषयः, प्रत्युत ऋषिका अपि सन्ति। ऋग्वेदे चतुर्विंशतिरथर्ववेदे च पञ्च ऋषिकाः मन्त्रदर्शनवत्यो निर्दिश्यन्ते यथा- यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी इत्यादयः।
अर्थ – विशाल संस्कृत साहित्य अनेक कवियों तथा शास्त्रकारों द्वारा अत्यधिक समृद्ध किया गया। वैदिक काल के आरंभ से ही शास्त्रों तथा काव्यों की रचना और संरक्षण में पुरूष के समान स्त्रीयाँ भी सावधान थी। वैदिक युग में ऋषि एवं ऋषि-पत्नी दोनों ही मंत्रों की रचना करते थे। ऋगवेद में चौबीस और अथर्ववेद में पाँच ऋषि-पत्नियाँ उल्लिखित हैं- यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी आदि-आदि।
■ बृहदारण्यकोपनिषदि याज्ञवल्क्यस्य पत्नी मैत्रेयी दार्शनिकरुचिमती वर्णिता यां याज्ञवल्क्य आत्मतत्वं शिक्षयति। जनकस्य सभायां शास्त्रार्थकुशला गार्गी वाचक्नवी तिष्ठति स्म। महाभारतेऽपि जीवनपर्यन्तं वेदान्तानुशीलनपरायाः सुलभाया वर्णनं लभ्यते।
अर्थ – वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी दार्शनिक रूप में वर्णित की गई है। जिनको याज्ञवल्क्य जी ने आत्मतत्व की शिक्षा देते हैं। जनक की सभा में शास्त्रार्थ कुशल गार्गी नामक विदुषी रहती थी। महाभारत में भी जीवन-पर्यन्त वेदान्त अध्ययन में स्त्रियाँ रही। यह बात आसानी से वर्णन में मलती है।
लौकिकसंस्कृतसाहित्ये प्रायेण चत्वारिंशत्कवयित्रीणां सार्धशतं पद्यानि स्फुटरूपेण इतस्ततो लभ्यन्ते। तासु विजयाङ्का प्रथम-कल्पा वर्तते। सा च श्यामवर्णासीदिति पद्येनानेन स्फुटीभवति-
अर्थ – लौकिक संस्कृत साहित्य में प्रायः चालीस कवयित्रीयों का डेढ़ सौ पदें स्पष्टरूप से जहाँ-तहाँ प्राप्त हैं। उनमें विजयाङ्का का प्रथम कल्प है। वह श्यामवर्ण की थी। यह इस पद से स्पष्ट होता है।
■ नीलोत्पलदलश्यामां विजयाङ्कामजानता।
वृथैव दण्डिना प्रोक्ता ‘सर्वशुक्ला सरस्वती‘।।
अर्थ – नीले कमल के समान श्यामवर्ण की विजयाङ्का को न जानते हुए सरस्वती को सर्वशुक्ला दण्डी द्वारा व्यर्थ ही कहा गया।
■ तस्याः कालः अष्टमशतकमित्यनुमीयते। चालुक्यवंशीयस्य चन्द्रादित्यस्य राज्ञी विजयभट्टारिकैव विजयाङ्का इति मन्यते। किञ्च शीला भट्टारिका, देवकुमारिका, रामभद्राम्बा-प्रभृतयो दक्षिणभारतीयाः संस्कृतलेखिकाः स्वस्फुटपद्यैः प्रसिद्धाः।
अर्थ – उनका समय आठवीं शताब्दी अनुमान किया जाता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि चालुक्यवंश के राजा चन्द्रादित्य की रानी विजय भट्टारिका ही विजयाङ्का है। कुछ और शीला भट्टारिका, देवकुमारिका, रामभद्राम्बा आदि दक्षिण भारतीय संस्कृत लेखिकाओं की कविताएँ प्रसिद्ध है।
■ विजयनगरराज्यस्य नरेशाः संस्कृतभाषासंरक्षणाय कृतप्रयासा आसन्निति विदितमेव। तेषामन्तःपुरेऽपि संस्कृतरचनाकुशलाः राज्ञयोऽभवन्। कम्पणरायस्य ( चतुर्दशशतकम् ) राज्ञी गंगादेवी ‘मधुराविजयम्‘ इति महाकाव्यं स्वस्वामिनो ( मदुरै )- विजयघटनामाश्रित्यारचयत्। तत्रालङ्काराणां संनिवेशः आवर्जको वर्तते।
अर्थ – विजयनगर के राजा ने संस्कृत भाषा की रक्षा के लिए जितना प्रयास किया, वह ज्ञात ही है। उनके अन्तःपुर में संस्कृत के कुशल रचनाकार हुए। चौदहवीं शताब्दी में कम्पन राय की रानी गंगा देवी मधुरा विजयम् नामक महाकाव्य की अपने स्वामी विजयघटना के आश्रय में रचना की। उसमें अलंकारां का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
■ तस्मिन्नेव राज्ये षोडशशतके शासनं कुर्वतः अच्युतरायस्य राज्ञी तिरुमलाम्बा वरदाम्बिकापरिणय- नामकं प्रौढ़ं चम्पूकाव्यमरचयत्। तत्र संस्कृतगद्यस्य छटा समस्तपदावल्या ललितपदविन्यासेन चातीव शोभते। संस्कृतसाहित्ये प्रयुक्तं दीर्घतमं समस्तपदमपि तत्रैव लभ्यते।
अर्थ – उनके ही राज्य में सोलहवीं शताब्दी में राज्य करते हुए अच्युत राय की रानी तिरूमलाम्बा ने वरदाम्बिका परिणय नामक विशाल चम्पुकाव्य की रचना की। उसमें संस्कृत गद्य की छटा तथा सुन्दर पदविन्यास अति रमणीय हैं। संस्कृत साहित्य में लम्बे समस्त पद का प्रयोग उसी में हुआ है।
■ आधुनिककाले संस्कृतलेखिकासु पण्डिता क्षमाराव (1890-1953 ई॰) नामधेया विदुषी अतीव प्रसिद्धा। तया स्वपितुः शंकरपाण्डुरंगपण्डितस्य महतो विदुषो जीवनचरितं ‘शंकरचरितम्‘ इति रचितम्।
अर्थ – आधुनिक काल में संस्कृत लेखिकाओं में पंडित क्षमाराव नाम की विदुषी बहुत प्रसिद्ध है। उन्होनें अपने पिता पंडित शंकर पाण्डुरंग की महान विद्वता जीवन चरित पर ‘शंकर चरितम्‘ की रचना की।
■ गान्धिदर्शनप्रभाविता सा सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथामुक्तावली, विचित्रपरिषद्यात्रा, ग्रामज्योतिः इत्यादीन् अनेकान् पद्य-पद्यग्रन्थान् प्रणीतवती। वर्तमानकाले लेखनरतासु कवयित्रीषु पुष्पादीक्षित-वनमाला भवालकर – मिथिलेश कुमारी मिश्र-प्रभृतयोऽनुदिनं संस्कृतसाहित्यं पूरयन्ति।
अर्थ – गाँधी दर्शन से प्रभावित होकर उन्होने सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथा मुवक्ताली, विचित्र परिषद्यात्रा, ग्रामज्योति इत्यादि अनेक गद्य-पद्य की रचना की। इस समय लेखन कार्य में संलग्न कवित्रियों में पुष्पादीक्षित, वनमाला भवालकर, मिथिलेश कुमारी मिश्र आदि आए दिन संस्कृत साहित्य को पूरा करते है।